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जोगिन्दर पाल की चुनी हुई कहानियाँ

कृष्णा पाल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1247
आईएसबीएन :81-263-0841-9

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प्रस्तुत है उर्दू से हिन्दी रूपान्तरित कहानियाँ...

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जोगिन्दर पाल की कहानियों का संसार विस्तृत है। चाहे घरेलू स्त्रियों का एकान्त हो जिससे एक एकाकी स्त्री चूल्हे से ,आटे से,गागर से या फिर नमकदानी से बात करती हो या फिर बटवारे की टूटी किरचें जो दोनों तरफ की संवेदना को लहूलुहान करती रहती हैं।

तमन्ना का दूसरा कदम

कस्तूरी लाल ब्राह्मण को एकदम याद आया है कि यह समय तो लन्दन के भारतीय चैनल पर ‘रामायण’ शुरू होने का है। उसने लेटे-लेटे तेजी से हाथ पीछे करके बिस्तर की ऊँची टेक से टी.वी का रिमोट कण्ट्रोल उठाया, परन्तु कण्ट्रोल का बटन दबने पर स्क्रीन पर बी.सी.आ गया। उसने बटन दोबारा दबाया, मगर तस्वीर नहीं बदली। टी.वी. मेकैनिक ने उसे कुछ ही दिन पहले समझाया था कि वह हर चैनल सेट करने के बाद याददाश्त का बटन जरूर दबा दिया करे, मगर वह हमेशा भूल जाता है कि याददाश्त का बटन कौन-सा है। यह तो टेलीविजन का बटन है, उसे तो स्वयं अपनी याददाश्त के बटन का भी मालूम नहीं। उसकी पत्नी को मरे कई वर्ष हो गये हैं, किन्तु अब भी उसकी कमीज का कोई बटन टूटा हुआ पाकर वह उसे जोर से पुकारते हुए कमरे से इस तरह बाहर निकल आता है, मानो उसकी लीलावती किचन में ज्यूँ-की-त्यूँ बेसिन के सामने खड़ी जूठे बर्तन धो रही होगी-‘अरे भई, यह देखो मेरा बटन टूट गया है’।
‘बटन टूटे तुम्हारे दुश्मनों का’-लीलावती अपने पति की हर छोटी-बड़ी मुसीबत उसके दुश्मनों के खाते  में डाल  देती थी-‘‘लाओ मैं अभी नया बटन लगाये देती हूँ।’

मगर अब तो लीलावती की बजाय किचन में मिसेज बुड बर्तन धो रही होती है। वह हँसकर उसे जवाब देती है, ‘कई बार कह चुकी हूँ कि मुझसे हिन्दोस्तानी में मत बोला करो।’
‘‘क्या बोलूँ मिसेज वुड ? मेरी अँग्रेजी भी तो तुम्हारी समझ में आसानी से नहीं आती।
‘‘कुछ न कुछ तो आ ही जाती है।’’
तीन-चार साल पहले कस्तूरी लाल ब्राह्मण की इकलौती सन्तान, इमरती लाल ब्रेमन अपनी मेम और उसके पहले पति के दो बच्चों के साथ अपने अलग फ्लैट में शिफ्ट हो गया था। बेटे की राय पर ही ब्राह्मण ने अपने थ्री बेड-रूम फ्लैट का एक रूम-यह तीसरा ‘मास्टर बेड-रूम’ अपनी दिन-प्रतिदिन की जरूरतों को पूरा करने के लिए बाद में बनवाया था- मिसेज वुड के पास उठा दिया था और अधेड़ उम्र मिसेज वुड और बूढ़ा ब्राह्मण कुछ ही माह में इतने घुल-मिल गये थे कि मिसेज वुड को वह अपने स्वर्गीय पति की तरह लाचार-सा मालूम होने लगा और ममता की मारी ने उसके खाने-पीने की जिम्मेदारी स्वेच्छा से अपने सिर ले ली, और ब्राह्मण भी उससे किराया वसूल करना ऐसा भूल गया कि कभी याद भी आ जाता तो वह अपने-आपसे पूछता, ‘‘मिसेज वुड से किराया माँगूँ ? अपनी मिसेज वुड से ?’’
‘‘मिसेज वुड, तुम्हारा खाना साफ-सुथरा तो बहुत होता है, ब्राह्मण उससे मजाक में कहा करता,‘‘मगर बड़ा फीका होता है।’’
‘‘मेरा जैकल भी चटखारे का मारा हुआ था।’’ वह अपने पति को इसी नाम से याद करती थी। ‘‘इसीलिए हमारा किचन उसी ने सँभाल रखा था। तुम्हें तो मेरे काम से लौटते तक टेबल पर चाय तैयार रखना भी खलता है।’’
‘‘दरअसल, हमारी औरतें हमें बिगाड़ देती हैं मिसिज वुड।’’

परन्तु ब्राह्मण की स्वर्गीय पत्नी उसके किचन में हाथ बँटाने पर जोर देती थी तो वह उसे दो-टूक जवाब देती-घर का काम केवल तेरा काम है, या फिर मेरे बैंक का काम तुम सँभाल लो और तुम्हारी पत्नी बनकर किचन मैं लिये लेता हूँ पर अब तो वह काम-वाम से रिटायर होकर घर में पड़ा रहता है-दफ्तर तो मिसेज वुड जाती है, वह हँस देता है-मिसेज वुड तुम्हारी पत्नी थोड़ा ही है ? ‘वो तो-वो तो’ वो अपनी सोच पर लज्जित सा हो उठता है-अपनी मिसेज वुड से किराया माँगूँ ?
टी.वी.में बी.बी.सी चैनल निरन्तर चल रहा है और स्क्रीन पर कुछ एक अँग्रेजों की तस्वीरें ‘ब्रिटिश वे ऑफ लाइफ’ पर इतने जोर-शोर से बहस किये जा रही हैं जैसे अपनी बातें औरों को सुनाने की बजाय उन्हें खुद आप ही सुननी हों।
ब्राह्मण ने सारी उम्र लन्दन में बिता दी है, मगर उसे हमेशा यही मालूम होता रहा है कि अँग्रेज उसे कोई सचमुच का आदमी नहीं समझते-बस कोई है जो आदमी जैसा दिखता है। वह भी यही समझता रहा है कि अँग्रेज अपना हू-बू-हू आप होने के बजाय केवल अपनी तस्वीर में है-नहीं, मिसेज वुड की बात कुछ और है। उसके झुर्रियाते चेहरे में तो हमारे गाँव के मीठे बेर लटक रहे होते हैं।

कस्तूरी लाल ब्राह्मण का गाँव सबों के मुँह पर ‘बेर वाला गाँव’ के नाम से ही चढ़ा हुआ था। गाँव के बड़े-बूढ़ों की बद्दुआएँ भी यूँ ही हुआ करतीं-तेरी बेरी सूख जाए, और दुआएँ भी यूँ ही-तेरी बेरी हरी-भरी रहे। हर घर  के आँगन में बेरी की शाखाएँ मिट्टी की दीवार से ऊपर उठ-उठकर पड़ोसी के घर में झुक आयी होतीं और बाल-बच्चे घरों के अन्दर-ही अन्दर शाखों से कूदकर एक-दूसरे के पास जा पहुँचते और कभी बाहरी दरवाजों से निकल पड़ते तो उनकी माँएँ चिन्तित हो-होकर उनके इन्तजार में आधी होने लगतीं-हाय, तालाब इतना चढ़ा हुआ है....मुए कहीं वहीं न जा पहुँचे हों!

कस्तूरी की माँ ने उसे गाँव के तालाब में डूबने से बचा-बचाकर ऊँचा किया था। उसे क्या खबर थी कि ऊँचा होकर वह समुद्र में जा डूबेगा। अपने किसी मित्र के साथ काम की तलाश में एक बार जो वह घर से निकला तो बाहर-ही-बाहर धरती के किनारे तक आ पहुँचा और वहाँ बम्बई में भी काम न मिला तो बेझिझक समुद्र में उतर गया। लन्दन से उसके गाँव के ही एक पुराने दोस्त रहमतउल्ला ने उसे विश्वास दिलाया था कि हिम्मत करके किसी तरह वहाँ पहुँच जाओ, बाकी सब कुछ मुझ पर छोड़ दो। ‘ सो जो हो सो हो’ कहकर कस्तूरी लाल ब्राह्मण बड़े उथलेपन से गहरे  पानियों में जा डूबा और किनारे पर आ लगने के बाद होश जरा सँभलते ही जब उसे पैरों के नीचे खुश्की की पक्की सतहों का अहसास होने लगा तो उसने फैसला कर लिया कि अपनी नयी नवेली दुल्हन लीलावती और बेटे इमरती-इमरती लाल उसकी रवानगी के बाद पैदा हुआ था और उसने अभी तक उसका मुँह भी न देखा था-और बूढ़े माँ-बाप को अपने पास वहीं बुला ले। लीलावती और इमरती तो उसके पास आ गये,परन्तु उसके माँ-बाप के लिए तो लन्दन एक सुनी-सुनाई जन्नत का नाम था। सो वह अपने बेटे को ढेरों आशीर्वाद भेजकर अपनी मौत के इन्तजार में रहे। घर की सूखी बेरी तले पड़े रहे और माननेवाली बात तो नहीं फिर भी, जब अपनी बहू और पोते के जाने के कुछ ही महीनों में उन्होंने एक के बाद एक ने दम तोड़ दिया तो कस्तूरी लाल ब्राह्मण को अपने लन्दन के एक कमरे के किराये के फ्लैट में न केवल उनकी परछाइयाँ दिखाई देने लगीं, बल्कि कई बार उनके खाँसने की आवाजें भी सुनाई देतीं।

कस्तूरी लाल ब्राह्मण अपने बिस्तर पर सिर झुकाये बैठा है और टी.वी.स्क्रीन पर अँग्रेज जोश में आकर अपने साथियों से पूछ रहा है आप किस ‘ब्रिटिश वे ऑफ लाइफ’ की बात कर रहे हैं ? जिसने हमारी सड़कों पर अफ्रीकियों और एशियाइयों की भीड़ से घबराकर पीछे के घरों में जा शरण ली है ?
ब्राह्मण की आदत हो चुकी है कि गुस्सा आने पर वह जरा-सा हँस देता-अजीब कौम है ! पचास-पैतालिस बरस पहले जब मैं यहाँ आया था, तो उस वक्त भी इन लोगों ने यही राग अलाप रखा था...। अरे भई तुम्हारा ब्रिटिश वे ऑफ लाइफ हम सबसे ख्वामखाह बिदकता है। मजे से फलता-फूलता रहे, हमारा उससे क्या झगड़ा ? हम तो रोटी की तलाश में भटक-भटककर तुम्हारे रास्तों में आ पहुँचे हैं। हमारे देश में हमारे बाप-दादा तुम्हारी रोटी तोड़ते थे और यहाँ अब तुम्हारे देश में हम-फिर फीके-फीके हँस दिया-तुम समझते क्यों नहीं ? हम तो पेट भरकर अपनी भद्दी-सी अँग्रेजी में तुम्हारा शुक्रिया अदा करने के लिए मुँह खोलते हैं और न मालूम तुम क्या ओल-फोल बक जाते हो, जो तुम्हें अपने ब्रिटिश वे ऑफ लाइफ प्रसंग में खतरा महसूस होने लगता है।

इसी विषय में प्रायः मिसेज वुड को अपनी कौम के शान्त और सहनशील स्वभाव का विश्वास दिलाते हुए वह अपना खाना भी भूल जाता है। मिसेज वुड को उस पर तरस आने लगता है-खाते हुए बोला मत करो कस्तूरी, केवल खाया-पिया करो।
‘‘मुँह केवल खाने-पीने के लिए नहीं हिलाया जाता चोबी’’वे एक-दूसरे को आजकल पहले नाम से ही बुलाया करते हैं। ‘‘आदमी के बोलने की भूख भी पूरी होनी चाहिए, नहीं तो वह सूखकर काँटा हो जाता है।’’
कस्तूरी लाल ब्राह्मण को बी.कॉम. के अन्तिम वर्ष में अपनी युनिवर्सिटी के ओरेटोरिकल कॉण्टेस्ट में सबसे अच्छा बोलने पर गोल्ड मेडल मिला था, जिसका उल्लेख उसने हिन्दोस्तान में अपनी नौकरी के हर निवेदन पत्र में विशेष तौर पर किया था। परन्तु नौकरी चुपचाप कोई और चुराकर ले जाता। भला हो रहमतउल्लाह का जिसके कारण वह इंग्लैण्ड में पाँव जमाने में सफल हो पाया। रहमतउल्लाह उसे हर इण्टरव्यू पर समझाकर भेजता कि बड़ी-बड़ी बातें मत बनाना, बस इतना और ऐसा ही बोलना जितना और जैसा जरूरी है। इस प्रकार दूसरे या तीसरे इण्टरव्यू में ही उसका चयन बैंक में जूनियर असिस्टेण्ट कैशियर के पद के लिए हो गया, जहाँ वह कैशियर बनकर सम्मानपूर्वक रिटायर हुआ और अब बैंक की सेक्योरिटी पेन्शन पर भी ठाट से अपने व्यक्तिगत फ्लैट में रह रहा है।
परन्तु क्या खाक ठाट से ? जिस दिन वह अपने बैंक से रिटायर हुआ, उसी दिन उसकी लीलावती के सीने में जो दर्द उठा तो हजार जतन के बावजूद काबू में न आया। अन्त में पता चला कि लीलावती को फेफड़ों का कैन्सर है। और क्योंकि रोग आखिरी चरण पर आ पहुँचा है इसलिए प्रार्थना के सिवाय अब कोई कारगर इलाज सम्भव नहीं।
‘‘क्या तुम्हारी पत्नी ने पिछले दो-एक साल में कोई दर्द की शिकायत नहीं की?’’ डॉक्टर हैरान था कि बीमारी प्रारम्भ से शुरू होकर धीरे-धीरे आखिरी स्टेज तक पहुँची होगी।

‘‘हमारी छोटी-मोटी तकलीफ पर भी उसकी जान निकल जाती है,परन्तु....ब्रिटिश डॉक्टर ने ब्राह्मण को टोक दिया, हर किसी की जान उसकी अपनी तकलीफ पर ही निकलती है मिस्टर आई ऐम सॉरी-डोण्ट मेक ए पाअस कन्फ्यूजन !
सच्चाई यह है कि लीलावती के रोग की पहचान से पहले का सारा अरसा ब्राह्मण ने अनिश्चित स्थिति में बिताया। कभी-कभी लीलावती के चेहरे पर मुस्कराहटों के दर्दनाक दबाव के कारण वह अन्देशों में तो घिर जाता था, तथापि सिर झटककर वो अपने सन्देह को भ्रम का सहारा देकर उसके सामने बैंक का कोई नया किस्सा छेड़ देता।
आखिरी दिनों में ब्राह्मण अपनी पत्नी को अस्पताल से घर ले आया। लीलावती को अब चौबीस घण्टे ‘सैडेटिब्ज’ पर रखा जा रहा था और फिर वह दर्द न सहन कर पाती तो पैथेडीन का इंजेक्शन देकर उसे सुलाया जाता। इस सारे दौरान उनके फ्लैट में ब्राह्मण की माँ का साया मँडराता रहा। लीलावती इंजेक्शन लगवाकर सोयी पड़ी होती या यदि जाग रही होती तो उस पर दवाई का घोर नशा छाया होता और वह अपनी आँखों को आँसुओं से लबालब भरकर उसके पायताने बैठा होता और उसकी माँ के साये में से उसका सचमुच का हाथ प्रकट होकर उसकी पीठ सहला रहा होता और उसके कानों में माँ की आवाज भर रही होती-धीरज रखो कस्तूरी बेटे, सब ठीक हो जाएगा।

सब ठीक हो गया और उसकी लीलावती जिसके मुँह से हँसोड़ सदाएँ गिरी पड़ती थीं,ख्वाब ही ख्वाब में दर्द से बिलबिलाती चल बसी। उसका बेटा ?-पहले उसकी कहानी तो सुन लीजिए-जब उसकी अर्थी को ले जाने के लिए वैन में रखा गया तो वैन की अगली सीट पर अफ्रीकी ड्राइवर के साथ उसका एक पाकिस्तानी मित्र बैठ गया। वह पीछे अर्थी के पहलू में। वैन धचके से स्टार्ट होकर हवा में न जाने क्या बातें करने लगी और अड़ोस-पड़ोस में भी किसी को कानों-कान खबर तक न हुई कि कोई मर गया है या फिर ‘‘बीबी को कैन्सर था और बूढ़े़ से इतना भी न हुआ कि इलाज के लिए रिपोर्ट कर दे। हाँ, दिखते जरूर हमारी तरह हैं पर हमारी तरह होते नहीं-हमें क्या लेना-देना है-आओ !’’

बी.बी.सी.चैनल की बहस में से एक स्पीकर अपने साथियों को यही बता रहा है कि इन काले-पीले लोगों को उन्हीं की काली-पीली कदरों की रोशनी में समझने की कोशिश करनी चाहिए। ‘‘मगर इंसान की बुनियादी कदरों में तो कोई भेदभाव नहीं होता।’’ ब्राह्मण ने बोलनेवाले के लहजे से महसूस किया कि वह कोई विदेशी यूरोपियन होता है ! किसी एन्थ्रोपोलॉजी के विद्यार्थी से पूछकर तसल्ली कर लीजिए। मैं आपको युनिवर्सिटी में एन्थ्रोपोलॉजी ही पढ़ाता हूँ।
ब्राह्मण ने बोर होकर सोचा, भारतीय चैनल पर जब बी.बी.सी.आ गया है तो शायद बी.बी.सी.पर भारतीय चैनल की ‘रामायण’ आ रही हो, परन्तु बी.बी.सी.पर बी.बी.सी.ही आ रहा है और वहाँ से भी वही लोग अपनी बहस जारी रखे हुए हैं। उनकी गोरी-चिट्टी शक्लों पर आँखें जमाये ब्राह्मण को खयाल आया कि लीलावती कहा करती थी-यह तुमने मुझे कहाँ इन फिरंगियों में ला बिठाया है ! सभी एक जैसे लगते हैं, किसी एक से मिलते हुए लगता है किसी दूसरे से मिल रहे हैं। ब्राह्मण को अपनी पत्नी की बातें भी उसके पकवान की तरह बड़ी मजेदार लगती थीं ‘‘-जानते हो फिरंगी इतने गोरे, इतने कोरे क्यों लगते है ?’’ क्यों ?

‘‘क्योंकि ये केवल सोचते हैं महसूस भी करें तो हमारी तरह पक-पककर भूरे हो जाएँ, उनकी अलग-अलग शक्लें निकल आएँ। पिछले हफ्ते हमारी पड़ोसिन की लड़की अपने स्कूल के एक लड़के के साथ भाग गयी। मेरी शामत जो आयी कि उसके घर हमदर्दी करने जा पहुँची। उसने मुझे अपने दरवाजे पर ही रोक दिया और पूछने लगी-किससे मिलना है ? ऐसे निष्ठुर लोगों की कोई पहचान कैसे बने ?’’

‘‘क्या फायदा ? ब्राह्मण ने ठण्डी साँस भरी, जो इतनी गाढ़ी पहचान बना लेते हैं वे भी कहाँ रह जाते है ?’’
जूनियर असिस्टेट कैशियर अपने बैंक में करेन्सी नोट गिन-गिनकर शाम को बहुत देर से घर पहुँचता और क्योंकि ओवर टाइम के हर घण्टे का दुगुना भुगतान मिलता था इसलिए वह देर से छुट्टी मिलने का बुरा न मानता था। मगर घर पहुँचते-पहुँचते वह बहुत थक जाता था और रात को जब उसकी पत्नी अपनी धुन में उसे दिन-भर के घेरलू किस्से सुना रही होती, तो अचानक उसे खर्राटे भरते हुए पाकर अपना सिर पकड़कर रह जाती। फिर भी उसे बखूबी एहसास होता कि उसका पति सोते में भी उसे बड़े ध्यान से सुन रहा होता है। कई बार वह उसे गुस्से में झटककर जगा भी देती परन्तु वह उसकी तसल्ली के लिए उसकी सारी कहानी ज्यूँ-की-त्यूँ सुना देता। वह उसे हँसकर कहती-ठीक हैं,अभी तो थके-माँदे घर लौटे हो, पर रिटायरमेण्ट के बाद सारा दिन और सारी रात तुम्हें अपने सामने बिठा अपनी बातें सुनाया करूँगी।
कस्तूरी लाल ब्राह्मण को लीलावती अपने बातूनीपन के कारण भी बहुत प्रिय थी। उसने अपने रिटायरमेण्ट के सारे दिनों को ब्रिटिश पौण्डों के नोटों की तरह गिन-गिनकर उन्हें महीने और वर्षों की गड्डियों में बाँध-बाँधकर बड़े करीने से अपने दिल और दिमाग में सुरक्षित कर रखा था, परन्तु जब वही न रही तो उम्र-भर की जोड़ी हुई यह जीवन सन्ध्या की पूँजी वह कैसे खर्च करता ? किसके लिए ?

उसका बेटा इमरती लाल ब्रेमन। ब्रेमन को बचपन में सब प्यार से इमरती कहकर बुलाया करते थे-इमरती की तरह ही वह गोल-मटोल, रस भरा, मीठे और मक्खन में लथपथ ! जो भी उसे देखता बेअख्तियार मुँह उसकी तरफ बढ़ाए चला जाता। वह माँ की गोद में लेटे-लेटे ही बाप के पास लन्दन आ पहुँचा था। इतनी रमणीय सन्तान को बाँहों में लपेटकर ब्राह्मण निहाल हो गया था, मगर झट ही यह सोचकर बेहद उदास भी कि उसने अपने बूढ़े माँ-बाप के मुँह से इमरती को छीन लिया, और कि वे अब खाली मुँह हिला-हिलाकर उसकी बातों से पेट भर अपनी सूखी बेरी के नीचे सो जाते होंगे...
इमरती केवल देखने में अँग्रेज बच्चा मालूम न होता, वह बचपन में ही बड़ी साफ अँग्रेजी में रोने और हँसने लगा था। जब चार-एक साल की उम्र में उसका स्कूल शुरू हुआ तो क्लास में अँग्रेज बच्चे भी उसके पीछे टि्वंकिल, टि्वंकिल लिटिल स्टार’ दोहराते हुए मानो उसी से अँग्रेजी बोलना सीख रहे होते हैं। उसे देखकर माँ को तो चूमने-चाटने के सिवा कुछ सूझता ही न था, और खजांची बाप का यह था कि उसने बेटे की आँखों में भर-भरकर मानो पूरे एक सौ हजार पौण्डों के नोटों की गड्डियाँ दिल में सजाकर टिका लीं और दिल पर ताला लगा दिया।

लेकिन पल-पल की खुशियों की चौकीदारी सारी उम्र तो नहीं की जा सकती। कुछ ही वर्षों में हिन्दुस्तानी माता-पिता का अँग्रेज बेटा युनिवर्सिटी में दाखिल होकर ‘अमृट लाल ब्रेमन’ बन गया और उसे अपने माता-पिता के तौर-तरीके उजड्ड और अद्भुत प्रतीत होने लगे। मसलन यही कि उसका पिता धुन में आ जाने पर बेरों की तलाश में सारा लन्दन छान मारने पर अड़ जाता—नो, डैड नो ! आई कैन नो लाँगर स्टैण्ड युअर इण्डियननेस ! (नहीं पिता जी, अब इससे ज्यादा आपका भारतीयपन मुझसे सहन नहीं होता)

कस्तूरी लाल ब्राह्मण की माँ अपने साया-साया काँपते हाथ से बूढ़े बेटे की गुच्छा-मुच्छा पीठ सहलाकर उसकी हिम्मत बँधा रही है। इसी बीच बी.बी.सी. बहस के लोगों में से एक भारी-भरकम आवाज कानों में पड़ने पर वह अपने जेहन से बाहर निकलकर अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में लौट आया। एक बूढ़ा अँग्रेज बोल रहा है, ‘‘एशियाई और अफ्रीकी इमीग्रेण्टस की बढ़ती हुई आबादी से तुम अकारण भयभीत हो और उनसे ख्वामखाह लड़ते-झगड़ते हो...’’
‘‘लेकिन...’’ ‘‘नहीं, सब-कुछ आप-ही आप ठीक हो जाएगा। इन लोगों के बच्चे तो यहीं जन्में हैं, इन बच्चों की परवरिश भी यहीं हुई है। इन्हें कोई चारा ही नहीं कि जरा कद निकालते ही ये अपने विदेशी माँ-बाप से कोई सरोकार न रखे, या केवल इतना ही रखें जितना आप और मैं...’’
ब्राह्मण के जवानी के दिनों में भी कई अँग्रेजो के ऐसे ही बयान अखबारों में छपा करते थे और वह हँस-हँसकर सोचा करता था कि मसखरी कौम इतना भी नहीं जानती कि हमारे श्रवण कुमार बड़े ही इसलिए होते हैं कि वे बूढ़े माँ-बाप को आगे-पीछे बँहगी में उठाए तीर्थ-यात्रा पर लिए फिरें और उन्हें बैकुण्ठ तक पहुँचाने से पहले घर न लौंटे !...ब्राह्मण के माँ-बाप का गड़्ड-मड्ड साया एकदम उसकी आँखों में फड़फड़ाकर गायब हो गया और उनके प्रति अपनी बेपरवाही पर शर्मिन्दगी के अहसास को दबाकर वह लीलावती की ओर मुड़ गया। ‘‘तुमने अँग्रेजों से ज्यादा मूर्ख लोग देखें हैं लीला ?’’

एम.बी.ए. की डिग्री मिलते ही अमृट लाल ब्रेमन अँग्रेजी कारों की एक कम्पनी में बड़ी अच्छी पोस्ट हासिल करने में सफल हो गया और दो-चार बरस के भीतर ही कम्पनी के महत्त्वपूर्ण सदस्यों का उसका नाम आने लगा। जिन दिनों उसकी माँ की मृत्यु हुई, कम्पनी ने उन्हीं दिनों कोई साल-भर के लिए उसे कीनिया में एक ब्रांच खोलने और स्थानीय स्टाफ की व्यवस्था के लिए भेज रखा था। अपने बाप से टेलीफोन पर माँ की मौत का समाचार सुनकर उसे वाकई दुःख हुआ था। बाप के पूछने पर कि क्या वह माँ का मुँह देखने के लिए अगली सुबह तक पहुँच जाएगा, उसने हामी तो भर ली मगर बड़ा साहब अपने जीवन के इस मोटो का क्या करता कि पहले वही करो जो पहले करना जरूरी हो। पहले तो यही करना जरूरी था कि वह अपनी कम्पनी के लिए नये प्रोजेक्ट पर उन दिनों हर समय वहीं हाजिर रहे। इसके अतिरिक्त उसका एक व्यक्तिगत प्रोजेक्ट भी उसकी रवानगी में बाधा था। कीनिया पहुँचकर वह एक स्थानीय अँग्रेज हाई-लैण्डर की नौजवान विधवा मारग्रेट लीच के इश्क में गिरफ्तार हो गया था। मारग्रेट ने अपने स्वर्गीय पति का सारा हाईलैण्ड एक अफ्रीकी चीफ के हाथ बेच दिया था। इसी सम्बन्ध में मारग्रेट को दो ही दिन में लैण्ड रजिस्ट्रेशन ऑफिस में पेश होना था।

 इतने जरूरी काम को पूरा करने के लिए वह मारग्रेट को अकेला छोड़कर कैसे चल देता ? सो उसने मार्गी से सलाह करके उसी शाम लन्दन से फोन मिलाया और भारी स्वर में बाप को बताया कि उसकी तुरन्त रवानगी सम्भव नहीं, सो लाश को प्रोग्राम ते अनुसार उसकी अनुपस्थिति में ठिकाने लगा दिया जाए। अपनी बात खत्म करने से पहले उसने अपने बाप को टोंककर कहा, ‘‘डैड, तुम्हें शायद मृतक-संस्कार आदि के कारण आर्थिक कठिनाई हो, इसलिए मैं तुम्हारे बैंकर्स को ई-मेल द्वारा पन्द्रह सौ पौण्ड भेज रहा हूँ।’’ जैसा कि अमृट लाल ब्रेमन अपनी माँ को जानता था, उसे डर था कि बुढ़िया के रोम-रोम में हिन्दुस्तान धँसा है ; वह मरकर भी दम साधे पड़ी रहेगी कि जाने से पहले एक बार बेटे से मिल ले ! परन्तु उसने कन्धे उचकाकर अपने-आपको बताया मैं क्या कर सकता हूँ ?
ब्रेमन की माँ की मौत को अभी दस दिन भी न हुए होंगे कि उसने मार्गी से अपनी शादी रजिस्ट्री करवा ली। अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को हाईलैण्ड से नैरोबी के एक ऊँचे घर में ले आया। उसे मालूम था कि बाप अभी शोक-लहर में गोते खा रहा होगा, इसलिए वह कोई महीना भर रहा और फिर अपने ठहरे-ठहरे संक्षिप्त पत्र में उसे अपनी परिस्थिति के बारे में सूचित किया। लिखा कि छह-आठ माह में वह अपनी पत्नी मारग्रेट और बच्चों के साथ लन्दन पहुँच जाएगा, कि मार्गी और दोनों बच्चे—छोटा फ्रैड और बड़ी शीना—उससे मिलकर बहुत खुश होंगे, और कि वह फ्लैट में कम-से-कम दो कमरे उनकी फौरी रिहायश के लिए तैयार करवा के रखे। कोई सुविधाजनक फ्लैट मिलने पर वे वहाँ शिफ्ट कर जाएँगे।

ब्रेमन के लन्दन लौट आने पर ब्राह्मण का घर इतना लद गया कि उन्हें सारी फालतू चीजें निकाल फेंकनी पड़ीं। ब्राह्मण को लगा कि वह बाकी फालतू चीजो के साथ उसे भी डस्टबिन में कहीं नाउलट आये। अपने बेटे के साथ उसका केवल फंक्शनल रैपो रह गया था। और बहू तो लन्दन पहुँचने के बाद भी पहले की तरह अभी कीनिया में ही रह रही थी। उनके बच्चे ? वे उसे ‘सर’ कहकर बुलाते थे, ‘ग्रैनपा’ कैसे समझते? उनके बाप को तो उन्होंने स्वप्न में भी न देखा था। एक बार उसने हिम्मत करके उनके बाप के सामने उन्हें अपने कमरे में आने के लिए आमंत्रित किया, मगर ब्रेमन बोल उठा, ‘‘नो डैड, मैंने उन्हें चेतावनी दे रखी है कि तुम्हें डिस्टर्ब न किया करें।’’ ब्राह्मण अपने बेटे की सहानुभूति पर शक नहीं करना चाहता था, तथापि वह अच्छी तरह जान चुका था कि उसका एम.बी.ए. बेटा किसी सुविधा के लिए सौ भावनाएँ बिना झिझक ‘वेस्ट पेपर बास्केट’ में डाल देगा। अपनी पत्नी के आगे-पीछे यदि वह भी चल बसा होता तो ब्रेमन अपने परिवार के लिए इतनी ज्यादा जगह की सहूलियत को गनीमत समझकर भगवान का शुक्र समझता। बरहाल इसी सहूलियत के कारण वह अपने यहाँ पहुँचने के कुछ महीने बाद ही अपने बाप के यहाँ से किराए के फ्लैट में चला गया। परन्तु उनके जाने के बाद ब्राह्मण को अब अपना फ्लैट बिलकुल खाली मालूम होने लगा, जिसमें मानों वह अपने ही-भूत-सा  अपनी स्वर्गीय लीलावती के साथ रह रहा हो।

-हँस रही हो लीलो ? यहाँ हम क्या करने को रुके पड़े हैं ? चलो अब कूच कर जाएँ ?
-कहाँ ?
-अगले जहान में और कहाँ ?
-वहीं तो आ पहुँचे हो, नहीं तो हमारा मिलाप कैसे होता ? लेकिन फिर यह हुआ कि अमृट लाल ब्रेमन ने पिता के अकेलेपन को सामने रखते हुए मिसेज वुड को यहाँ ला बिठाया।
एकाएक शंख और शादियाने की आवाज सुनकर ब्राह्मण चौंक पड़ा। उसने देखा कि बी.बी.सी. चैनल भी अपनी याददाश्त खो बैठा है और स्क्रीन पर भारतीय चैनल की ‘रामायण’ आरम्भ हो ली है। श्रीराम चन्द्र अपने चौदह बरस के वनवास के बाद अयोध्या लौट आये हैं, ब्राह्मण खिल उठा है। वह भी अयोध्यावासियों की उल्लास भरी भीड़ में शामिल होकर उनके साथ नाचना चाहता है। परन्तु पगले चैनल की याददाश्त फिर खुल गयी है और स्क्रीन पर बहस के वही सदस्य सामने आ गये हैं। इससे पहले कि वो सटपटाकर टी.वी. ऑफ कर देता, उसे ‘डोरबैल’ सुनाई दी—अरे ! चोबी अपने दफ्तर से लौट भी आयी है, और मैंने अभी तक चाय तैयार नहीं की। उसने लपककर दरवाजा खोला और दरवाजे के फ्रेमवर्क में मिसेज वुड को मुस्कराते हुए खड़े पाकर वह मानो उसकी तसवीर को हाथों में लिए हुए है। उसने अपनी आँखें झपकाकर मिसेज वुड के सिर से पाँव तक नजर दौड़ायी। वह वही ड्रेस पहने हुए है जो उसने उसके पिछले बर्थडे पर दी थी।
‘‘ब्यूटीफुल ?...’’

‘‘कौन ? मैं या तुम्हारी ड्रेस ?..’’
वह उसका हाथ थामकर ड्राइंग रूम में ले आया और माफी माँगने के अन्दाज में हिन्दुस्तानी में बड़बड़ाने लगा--‘‘आज मैं फिर चाय बनाना भूल गया हूँ चोबी।’’ मुहब्बत भरे पछतावे के बोल लातीनी में हो या हिन्दुस्तानी में, मिसेज वुड उन्हें भाँपकर तुरन्त पिघल जाती है--‘‘यू नॉटी ब्वॉय ! तुम्हें क्या परवाह है ?’’
‘‘नहीं,’’ वह बौखलाया-सा नजर आ रहा है, ‘‘आज मैं तुम्हारे लिए रात का खाना भी बनाऊँगा।’’ कई दिन से वह लीलावती की अँगूठी जेब में रखे हुए है और फैसला नहीं कर पा रहा है कि उसे मिसेज वुड को पहनाए या नहीं। उसने सिर झटककर अँगूठी अपनी जेब से निकाली और मिसेज वुड का हाथ पकड़कर उसकी उँगली में डाल दी। वह घबरा गया कि उसने कुछ गलत तो नहीं कर दिया।
‘‘हाऊ स्वीट !’’ मिसेज वुड की झुर्रियाँ तमतमा उठी हैं और उसने अनायास ब्राह्मण को चूम लिया। ‘‘तुम बैठो, मैं चाय लेकर आती हूँ।’’
मिसेज वुड कमरे से बाहर जा रही है और बी.बी.सी. पर वही बूढ़ा बुद्धजीवी अपने साथियों को समझा रहा है, ‘‘नहीं, दंगा-वंगा क्यों करते हो ? इन लोगों के बच्चे तो यकीनन इनके नहीं रहते, पर ये खुद आप भी अपने कहाँ रहते हैं ?’’


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